- 'रैय्यतवाड़ी व्यवस्था', अंग्रेजों द्वारा भारत में भू-राजस्व वसूली हेतु लागू की गई दूसरी व्यवस्था थी।
- इसका जन्मदाता थामस मुनरो और कैप्टन रीड को माना जाता है।
- 1792 ई० में कैप्टनरीड के प्रयासों से रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को सर्वप्रथम तमिलनाडु के 'बारामहल' जिले में लागू किया गया।
- तमिलनाडु के अलावा यह व्यवस्था मद्रास, बम्बई के कुछ हिस्से, पूर्वी बंगाल, आसाम, कुर्ग के कुछ हिस्से में भी लागू की गई।
- रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के अन्तर्गत कुल ब्रिटिश भारत के भू-क्षेत्र का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था।
- रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के अन्तर्गत रैय्यतों (किसानों) को भूमि का मालिकाना और कब्जादारी अधिकार दिया गया था जिसके द्वारा ये प्रत्यक्ष रूप से सीधे या व्यक्तिगत रूप से सरकार को भू-राजस्व का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे।
- रैय्यतवाड़ी व्यवस्था में कृषक ही भू-स्वामी होता था, जिसे भूमि की कुल उपज का 55 प्रतिशत से 33 प्रतिशत के बीच लगान कंपनी को अदा करना होता था।
- इस व्यवस्था के अन्तर्गत लगान की वसूली कठोरता से की जाती थी तथा लगान की दर भी काफी ऊंची थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि कृषक महाजनों के चंगुल में फंसता गया जो कालांतर में महाजन और किसानों के मध्य संघर्ष का कारण बना।
- रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के मुख्य दो उद्देश्य थे- एक भू-राजस्व की नियमित वसूली और दूसरी रैय्यतों की स्थिति में सुधार, पहला उद्देश्य अवश्य पूरा हुआ लेकिन दूसरा नहीं।
- 1836 के बाद रैय्यतवाड़ी व्यवस्था में विंगेर और गोल्डस्मिथ द्वारा कुछ सुधार किया गया, अब खेत की उर्वरता और खेती के लिए उपलब्ध साधनों के आधार पर खेती का लागान निश्चित किया गया जिसका रैय्यत और कंपनी दोनों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा।
महालवारी बंदोबस्त
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