शनिवार, 25 जनवरी 2025

धन का बहिर्गमन (Drain of Wealth)


  • ब्रिटिश उपनिवेशवाद के सभी चरणों में भारतीय कच्चे माल, संसाधनों और धन की निरन्तर बेतहाशा लूटमार की गई।
  • भारत की बढ़ती हुई निर्धनता की कीमत पर स्वयं को सम्पन्न बनाने के लिए ब्रिटेन द्वारा भारत के कच्चे माल, संसाधनों और धन की निरन्तर 'लूटमार' की पृष्ठभूमि को दादाभाई नौरोजी और रानाडे जैसे राष्ट्रविदों ने 'धन के बहिर्गमन या निष्कासन' की संज्ञा दी।
  • भारतीय धन के बहिर्गमन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस दिशा में प्रथम प्रयास दादा भाई नौरोजी ने किया। 
  • 2 मई, 1867 को दादा भाई नौरोजी ने लंदन में आयोजित ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की बैठक में अपने पेपर जिसका शीर्षक था 'England's Debt to India' को पढ़ते हुए पहलीबार 'धन के बहिर्गमन' सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।
  • दादा भाई नौरोजी 'धन के बहिर्गमन' के सिद्धान्त के सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रखर प्रतिपादक थे। 
  • कालांतर में दादाभाई ने अपने कुछ अन्य निबन्धात्मक लेखों जैसे 'पॉवर्टी एण्ड अन ब्रिटिश रूल इन इण्डिया' (1867), 'द वॉन्ट्स एण्ड मीन्स ऑफ इण्डिया' (1870) और 'ऑन दी कामर्स ऑफ इण्डिया' (1871) द्वारा धन के निष्कासन सिद्धान्त की व्याख्या की।
  • 1905 में उन्होंने कहा कि "धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण।"
  • दादाभाई नौरोजी ने धन के निष्कासन को 'अनिष्टों का अनिष्ट' (Evil of all Evil) की संज्ञा दी। 
  • नौरोजी के अनुसार "भारत का धन बाहर जाता है और फिर वही धन भारत में ऋण के रूप में आ जाता है और इस ऋण के लिए और अधिक ब्याज, एक प्रकार का यह ऋण कुचक्र सा बन जाता है।" 
  • दादाभाई ने भारतीयों को उनके देश में विश्वास तथा उत्तरदायित्वपूर्ण पदों से वंचित करने की ब्रिटिश नीति को 'नैतिक निकास' की संज्ञा दी।
  • धन के बर्हिगमन के बारे में एक अन्य राष्ट्रवादी नेता महादेव गोविन्द रानाडे ने 1872 ई० में पुणे में एक व्याख्यान के दौरान भारतीय पूंजी और संसाधनों के बर्हिगमन की आलोचना करते हुए कहा कि "राष्ट्रीय पूँजी का एक-तिहाई हिस्सा किसी न किसी रूप में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत के बाहर ले जाया जाता है।"
  • प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा राष्ट्रवादी नेता रमेश चंद्र दत्त ने अपनी पुस्तक 'इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' (1901) में 'धन के बहिर्गमन' का उल्लेख किया। उनके अनुसार भारत के सकल राजस्व का लगभग आधा हिस्सा प्रतिवर्ष बाहर जाता है।
  • आर०सी० दत्त ने "धन के निष्कासन के दुष्परिणामों को नादिरशाह जैसे विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा की गई लूटमार से भी अधिक घातक बताया, उनके अनुसार यह प्रक्रिया अनवरत है और वर्ष दर वर्ष बढ़ती जाती है।"
  • दत्त महोदय ने धन के बर्हिगमन को 'एक बहते हुए घाव' की तरह बताया। 
  • 'आर० सी० दत्त' की पुस्तक 'इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' को भारत के आर्थिक इतिहास पर पहली प्रसिद्ध पुस्तक माना जाता है।
  • 1896 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अपने कलकत्ता अधिवेशन में सर्वप्रथम 'धन के निष्कासन' सिद्धान्त को स्वीकार किया।
  • 1901 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बजट पर भाषण करते हुए गोपाल कृष्ण गोखले ने 'धन के बहिर्गमन' सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।

ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव (स्मरणीय तथ्य)

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