- 19वीं सदी में भारत के अनेक हिस्सों में रहने वाले आदिवासियों ने संगठित होकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध कई छापामार युद्ध लड़े।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के आदिवासी आंदोलन अन्य आंदोलनों से इस दृष्टि से भिन्न थे क्योंकि ये अत्यधिक हिंसक और संगठित थे, आदिवासियों की एकजुटता प्रशंसनीय थी, एक आदिवासी दूसरे आदिवासी पर कभी आक्रमण नहीं करता था।
- आदिवासियों ने अपने को वर्ग के आधार पर संगठित कर जातीय आधार पर जैसे सांचाल, कोल, मुंडा के रूप में संगठित किया था।
- आमतौर पर आदिवासी, शेष समाज से अपने को अलग-थलग रखते थे, उनकी आजीविका का साधन झूम खेती (जगह बदल-बदल कर की जाने वाली खेती) और मत्स्य पालन था।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक घेरे में आने के बाद ये अपनी ही जमीन पर कृषि मजदूर बन गये और उन्हें खानों, बागानों और फैक्ट्रियों में कार्य करने के लिए तथा कुलीगीरी करने के लिए विवश किया गया।
- जनजातीय या आदिवासी आंदोलन के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-
1. सरकार ने आदिवासी कबीलों के सरदारों को जमींदार का दर्जा प्रदान कर एवं लगान की नई पद्धति लागू कर उनकी परम्पराओं को कमजोर किया।
2. आदिवासियों के बीच महाजनों, व्यापारियों और लगान वसूल करने वाले ऐसे समूह को लादा गया जो बिचौलिये की भूमिका में थे।
3. वन क्षेत्रों में सरकारी नियंत्रण कठोर करने, ईंधन और पशुचारे के रूप में वन के प्रयोग पर प्रतिबंध तथा झूम और पड़ खेती पर रोक।
4. आदिवासी क्षेत्रों में सरकार द्वारा ईसाई मिशनरियों की घुसपैठ कराना।
- उपर्युक्त कारणों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आदिवासियों को विद्रोह करने के लिए विवश किया।
- कुंवर सुरेश सिंह द्वारा आदिवासी आंदोलन को तीन चरणों में विभाजित किया गया है। ये तीन चरण इस प्रकार हैं-
- प्रथम चरण - 1795 - 1860
- द्वितीय चरण - 1860 - 1920
- तृतीय चरण - 1920 के बाद
- विद्रोह का प्रथम चरण अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के साथ शुरू हुआ, जो अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों के क्षेत्रों में घुसने तथा वहां सुधार कार्यों की शुरुआत करने के विरुद्ध शुरू हुआ।
- इस समय आदिवासियों के आंदोलन का स्वरूप प्राय: पहले की व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना था।
- इन आंदोलनों को उन लोगों ने नेतृत्व प्रदान किया जिनकी विशेष स्थिति को ब्रिटिश उपनिवेशीकरण के द्वारा क्षति पहुंची थी।
- कुंवर सुरेश सिंह द्वारा तीन भागों में विभाजित आदिवासी आंदोलन के प्रथम चरण के कुछ प्रमुख आंदोलन इस प्रकार हैं-
- पहाड़िया विद्रोह राजमहल की पहाड़ियों में स्थित उन जनजातियों का विद्रोह था जिनके क्षेत्रों में अंग्रेजों ने हस्तक्षेप किया था।
- 1778 में इनके खूनी संघर्ष से परेशान अंग्रेज सरकार ने समझौता करके इनके क्षेत्र को 'दामनी कोल' क्षेत्र घोषित किया।
- खोंड विद्रोह में हिस्सा लेने वाले खोंड जनजाति के लोगों ने 1837 से 1856 के बीच ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था।
- खोंड विद्रोह में हिस्सा लेने वाले खोंड जनजाति के लोग तमिलनाडु से लेकर बंगाल और मध्य भारत तक फैले हुए थे।
- खोंड लोगों के विद्रोह का कारण था सरकार द्वारा नये करों को लगाना, उनके क्षेत्रों में जमींदारों और साहूकारों का प्रवेश तथा मानव जाति पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाना आदि।
- खोंड विद्रोह को चक्र विसोई ने नेतृत्व प्रदान किया।
- कालांतर में राधाकृष्ण दण्डसेन ने भी विद्रोह में सिरकत की।
- कोल विद्रोह 1832–37 तक चलता रहा।
- कोल विद्रोह रांची, सिंहभूमि, हजारीबाग, पालामऊ और मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैला था।
- इस विद्रोह का कारण था आदिवासियों की भूमि को उनके मुखिया मुण्डों से छीनकर मुसलमान तथा सिक्ख किसानों को दे देना।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें